महत्वाकांक्षा

खामोशियो को मैंने सिमटते देखा है
इन ख्वाहिशों को चहकते देखा है
मैंने हर मौसम को बदलते , फिर
खुद को संभलते देखा है!
सच्चे, झूठे, अपने पराये सबको रंग बदलते देखा है
उस दौर से गुजरे है जनाब जहां
ख़ुद को औरो का, औरों को गैरो का होते देखा है
मुझे मत दो दिलासे, मुझे मत दो तस्सलिया
ना दो साथ होने की ख्वाहिशें, अब
मैंने खुद ही पूरा होने का सपना देखा है!!
बहुत सुकून है इस अधूरेपन में क्योंकि,
पूरेपन में मैंने खुद को खोते देखा है।

Published by Priyanka Priyadarshini

unpolished poet.

8 thoughts on “महत्वाकांक्षा

  1. Wah Wah Bahut hi Umda 😍😍

    Very well written and correctly elaborated …👌🌹🌹👌

    Keep the good work going on 👏👏👍👍

    Like

Leave a reply to Albela Cancel reply

Design a site like this with WordPress.com
Get started